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हमारे धर्म और समाज

My Thoughts....मेरे विचार
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दिशाहीन मनुष्यों को एक सकारात्मक दृष्टिकोण प्रदान करने और उसे इश्वर के और करीब लाने के लिए धरती पर अवतरित महापुरुषों ने धर्म रूपी मार्ग का निर्माण किया. हम धर्म की तुलना उस बगीचे से कर सकते है, जहा जाकर हमे एक उर्जा की प्राप्ति होती है, जो हमे बुराई से अच्छाई की ओर जाने के लिए सदैव प्रेरित करती रहती है. समय सर्वथा एक सा नहीं रहता, वह अपने साथ कई प्रकार की बुराइया और अच्छाईया को भी लाता है. चुकी हम उस समय के साथ आगे बड़ते रहते है, और उस बदलते हुए समाज का हिस्सा होते है तो ये बुराइया और अच्छाईया हममे धीरे – धीरे समाहित होते चली जाती है, और हमे इनका पता भी नहीं चलता. और जीवन के किसी पड़ाव में आने पर यदि कोई हमे हमसे जुडी बुराइयों से अवगत कराना चाहता है, तो हमारी परवरिश, हमारा अहंकार, हमारी सामाजिक नीव हमे उसे स्वीकार नहीं करने देती है. आपको सर्वथा यह बात ध्यान में रखना चाहिए की, इस संसार की हर श्रंखला समय के साथ परिवर्तित होती है. चुकी मैंने धर्म को एक बगीचे की संज्ञा दी तो मै आपको उसी का उदारण देना चाहुगा. एक सुन्दर बगीचे के निर्माणकर्ता का सिर्फ एक मात्र उद्देस उस बगीचे में आने वाले मनुष्यों को एक सकारात्मक और परफुल्लित कर देने वाली उर्जा प्रदान करना होता है. चुकी यह प्रकृति का नियम है की इस धरती यदि इश्वर भी जन्म ले तो उन्हें कुछ समय के बाद जाना होता है. हर निर्माणकर्ता इस संसार से जाते हुए, अपने बगीचे की बागडोर कुछ जिम्मेदार लोग जिन्हें हम माली कह सकते है, के हाथो में इस आशा के के साथ सोप के जाता है की वे मेरे उद्देसो को पूरा करेगे और साथ में उन्हें कैसे पूरा किया जाये उसकी एक मार्गदर्शिका जिसे हम धर्मग्रन्थ कहते है, देते जाता है. यह स्वाभाविक है की हर माली उस निर्माणकर्ता जीतना योग्य नहीं हो सकता, उसके उसके कुछ सकारात्मक पहलु और कुछ नकारात्मक पहलु भी हो सकते है. किसी भी प्रकार की सत्ता को पाना सदैव से ही मनुष्य की प्रवर्ती रही है. और इसी प्रवर्ती के कारन कभी कभी माली अपने आप को उस बगीचे मालिक समझ बैठता है. समय बीतता है, माली बदलते रहते है और इस बदलाव का असर उस बगीचे पर भी दिखाई पड़ने लगता है. बगीचे की अच्छे से देखरेख नहीं होती तो उसमे खरपतवार का उगाना भी स्वाभाविक होता है. परन्तु उस बगीचे में आने वालो के मन में सदैव से ही उस बगीचे के निर्माणकर्ता की मंसा होती है तो वो उस बगीचे में उगने वाले खरपतवार को भी का अच्छा समझ बैठते है. जैसा उन्हें माली द्वारा बताया जाता है, वैसे ही वो उस बगीचे के हर पेड़ को सुखकर मान बैठते है. उन्हें पता नहीं होता की वो खरपतवार उस बगीचे के सुन्दर पेडो को कितना नुकसान पंहुचा रहे है. साथ ही साथ उन खरपतवारो से उनके सवास्थ्य पर कितना बुरा असर हो रहा है.

ऊपर लिखे अंशो से आप मेरे मन की मंसा शायद समझ चुके होगे. धर्म और उससे सम्बन्धित विषय पर बात करना सदैव से ही विवादास्पद रहा है. इसका मुख्य एक कारन है, धर्म के सबसे बड़े विरोधियो की इस धर्म पर सत्ता. और अक्सर हम इन लोगो को अपना हितेषी मान लेते है, जो की हमारी सबसे बड़ी भूल होती है. जैसा की मैंने ऊपर लिखा है की जब धर्म रूपी बगीचा कुछ सत्ता लोलुप लोगो के हाथो चला जाता है, तो वह अपनी सत्ता को चलाने के लिए हमारी भावनाओं से खेलते हुए हमारे अन्दर धर्मभीरुता और कट्टरता का प्रवाह करते है, जो उनकी सत्ता को बल देता है और उन्हें और ताकतवर बनाता चला जाता है. धर्मभीरुता और कट्टरता को बढाने के लिए यह लोग धीरे धीरे समाज में विभिन्न प्रकार की कुरूतियो का समावेश करते जाते है. और यह बाते हमारे जीवन का हिस्सा बन जाती है. आज इस कंप्यूटर युग में भी ये कुरीतिया हमारे जीवन का एक हिस्सा बनी हुई है . यह किसी एक धर्म की बात नहीं है, हर जगह यह व्याप्त है. यह हमारे द्रष्टिकोण और हमारी तार्किक क्षमता पर पर निर्भर करता है की हम इसे कितना समझ पाते है. वर्ष 2011 में केरल के सबरीमाला में सिर्फ अंधविश्वास के कारन 102 तीर्थयात्रीयो को काल ग्रास बनना पड़ा. और ना जाने ऐसे कितने उदाहरण है. यदि हम, जो इस लेख को पड़ रहे है, अपने आप से पूछे की क्या हम अन्धविसवासी है. तो मुझे लगता है 99% का लोगो जवाब नहीं होगा. जो की 99% गलत होगा. मै यहाँ छोटी छोटी बातो के उदारण देना चाहुगा जो अक्सर हम करते रहते है. प्रायः हम लोग अपने सप्ताह के कुछ दिनों को कुछ बातो के लिए निषेध मानते है, उदारण के तौर पर इस दिन ये नहीं खाना, बाल नहीं कटाना, और बहोत सारी बाते. इन सब बातो के पीछे क्या कारन है, शायद हममे से किसी को भी पता नहीं और ना ही हमने कभी इसे जानने की कोशिश की. हमारे समाज के बुद्धिमान कहलाने वाले लोग अक्सर मंदिर के सामने समाने डरवाने धर्मिक पर्चे बाटते हुए या फेसबुक पर धार्मिक डर या दुर्भावना बड़ाने वाली पोस्ट शेयर करते मिलते है. हम अक्सर कम पढ़े लिखे लोगो को अन्धविसवासी कहते हुए मिलेंगे. हमारा उनको दोष उतना उचित नहीं है, क्योकि उनमे सोचने की क्षमता उतनी नहीं है.परन्तु यदि हम जैसे लोग भी बिना सोचे समझे इन बातो बढ़ावा दे रहे है तो, मै यह समझता हु की हम अपने साथ साथ अपने बच्चो के भविष्य में पैदा वाली तार्किक क्षमता को, जन्म से पहले ही मार दे रहे है. कभी कभी मन में बड़ा दुःख सा होता है अपने लिए नहीं उन इश्वर तुल्य संतो के लिए जिनके बगीचे में कुछ नासमझ मालियों ने खरपतवार की खेती करना शुरु कर दिया. आज के समय में फैली धार्मिक, जातिक घृणा भी अंधविश्वास का ही एक प्रकार है, बात सिर्फ हमारी समझ की है. चुकी हम शिक्षित है. और मै समझता हु की एक शिक्षित व्यक्ति समाज के लिए एक पिता या बड़े भाई जैसा होता है. जो अपने छोटे भाइयो को सही दिशा प्रदान करता है. और यदि बड़ा भाई या पिता ही इन कुरूतियो को बढ़ावा देगा, तो हमे अपने छोटे भाइयो से और बच्चो से किसी प्रकार की अपेक्षा रखने का कोई अधिकार नहीं है. यदि हमे अपने देश को, आने वाली पीढ़ी और अपने इस मानव समाज को एक उचाई पर ले जाना है तो यह परम आवश्यक है की हम इस विषय पर चिंतन करे.

जय हिंद
डॉ. अजय सिंह नागपुरे

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