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भारतीय संस्कृति और भ्रमित समाज

My Thoughts....मेरे विचार
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पिछले कुछ दिनो से लोगो का ध्यान सालो से हो रहे जघन्य घटनाक्रमो में से एक पर गया। हर व्यक्ति अपने-अपने विचार दे रहा है।किसी ने कहा की भारत मे यह नहीं यह तो इंडिया मे होता है। किसी ने बदलती संस्कृति और आधुनिकता को इसका कारण बताया। यह जो आधुनिकता और संस्कृति का बदलना ये दो शब्द इस देश मे रह रहे हर व्यक्ति के जीवन मे दो बार जरूर दस्तक देते है। एक तो वह जवानी मे यह शब्द अपने बड़े बुजुर्गो से अपने और अपनी पीड़ी के लोगो के लिए सुनता है। दूसरा बुढ़ापे मे वह वर्तमान की जवान पीढ़ियो के लिए प्रयोग करता है। मै उन अक्ल के बुड़ो से और संस्कृति के ठेकेदारो से कुछ बाते पुछना चाहता हु। आप दुनिया मे सबसे ज्यादा किसिकी इज्जत करते है? तो सबका एक झूठा सा उत्तर होगा। भगवान की। तो ये बताइये आप जिसकी इज्जत करते है, उसकी तस्वीर को उसकी मूर्ति को खुद ही क्यो दिन रात बेइज्जत करते हो। तब कहा जाती है आपकी संस्कृति। बीड़ी से लेकर बनियान तक हर जगह भगवान की फोटो छपी होती है तथा उनके उपयोग के बाद उन्हे कचरे मे फेका जाता है, और खुद हम उसे अपने पैरो से मसलते हुए चलते है। कुछ बड़े मंदिरो को छोड़ दे तो गाव और कस्बो के मंदिरो मे और उनके आस पास गंदगी का कैसा आलम रहता है आप खुद ही जानते है। हरिद्वार मे कुम्भ के पहले हरकी पौड़ी जाने का मौका मिला, उस समय वह का पानी बंद कर दिया गया था। आप कल्पना नहीं कर सकते जिन मूर्तियो की आप मंदिरो मे पुजा करते थे, उन खंडित मूर्तियो पर लोग पैर रख कर जा रहे थे और यहा तक की उसके आस पास गंदगी फैला रहे थे। बड़ी असमंजस भरी बात थी संस्कृति, के ज्यादतर ठेकेदार ही वही दिखाई पढ़ रहे थे। जो संस्कृति के ठेकेदार यह कहते है की भारत गाव मे बसता है। उनसे यह पुछना हमारा कर्तयव्य है की क्या आपके दिल्ली गेंग रेप के आरोपियों जो की ज्यादतर गाव से दिल्ली आए थे, की सांस्कृतिक जड़े इतनी कमजोर थी, की उन्होने अपनी मर्यादा लांघ ली। जो लड़कियो को बंदिशों की बात कहते है, उन्होने परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से यह मान लिया है की हमारी संस्कृति के पुरुषो की नियत जन्मजात खराब है, हम जन्मजात बलात्कारी और व्यभिचारी है, हमसे बचकर चलो। हम उस आदमखोर श्रेणी के है जो खून देखते ही झपट पड़ते है। ये कहते है की यदि मेरे बच्चे ने कुछ गलती की है तो उसमे पड़ोसी का दोष है और यदि कुछ अच्छा किया तो मेरे संस्कार है।
इन बुद्धिमान श्रेष्ठ जनो को मै बताना चाहूँगा की समय हमेशा बदलता है और वह अपने साथ इस संसार को भी बदलता है। अपने देश की संस्कृति के बारे मे बताना चाहूँगा। 2500 से 1500 बीसी तक भारत मे सिंधु घाटी सभ्यता और संस्कृति थी, फिर आर्यन मध्य एशिया से आए तो संस्कृति मे बदलाव आया(2000-1500),फिर 1500 से 500 बीसी तक वैदिक युग आया तो संस्कृति मे कुछ बदलाव आया। उसके बाद नन्द वंश आया (364-381), मौर्य वंश आया, सेकड़ों लोग आए, 1526-1857 मुगल संस्कृति आई, फिर अंग्रेज़ आए और सबके कारण संस्कृति बदलती गई। वह हमेशा एक नहीं रही और ना हो सकती है। यह प्रकृति का नियम है की बदलाव तो आयंगे ही। बदलाव अच्छे और बुरे दोनों हो सकते है। यह तो कौम पर निर्भर करता है की वह किसे ग्रहण करती है। ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी के अनुसार संस्कृति का अर्थ है “The Arts and Other Manifestations of Human Intellectual Achievement Regarded Collectively” अथार्थ संस्कृति कला और मानव बौद्धिक उपलब्धि अभिव्यक्तियों का एक समूहिक रूप, जो की हर युग मे अलग अलग होता है। परंतु यह बात हमारे वर्तमान मे बुद्धिमान कहलाने वाले लोगो के समझ से परे है। हर असफल व्यक्ति की एक सामान्य आदत होती है, वह अपनी हर असफलता के लिए दूसरों को दोष देता रहता है। शायद हिंदुस्तान उसी दौर से गुजर रहा है। किसी भी समाज की या देश की प्रगति उस देश के श्रेष्ठतम लोगो पर टिकी होती है। और वह जैसा आचरण करते है, अन्य लोग भी वैसा ही आचरण करते हैं। इसी संदर्भ मे गीता मे तीसरे अध्याय के 21वे श्लोक मे लिखा है।
यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥

अर्थार्थ श्रेष्ठ पुरुष जो-जो आचरण करता है, अन्य पुरुष भी वैसा-वैसा ही आचरण करते हैं। वह जो कुछ प्रमाण कर देता है, समस्त मनुष्य-समुदाय उसी के अनुसार बरतने लग जाता है॥21॥

इस श्लोक को समझिए आप इस देश मे हो रहे बदलाव को अपने आप समझ जायंगे। देश के हर व्यक्ति की नजर मे कोई ना कोई श्रेष्ठ पुरुष होता है, देश होता है, संस्कृति होती है। और जो बुद्धिजीवी होता है वह उस श्रेष्ठ के सकारात्मक गुणो को अपने व्यक्तित्व मे, देश मे और संस्कृति मे लाने का प्रयास करता है। तथा जो निर्बल होता है वह उस श्रेष्ठ के सबसे बाहरी आवरण का सिर्फ अनुकरण करता है, तथा उससे वह समाज को सतही तौर पर बताना चाहता है की वह भी श्रेष्ठ है। हिंदुस्तान की ज़्यादातर जनता और नेता दोनों दूसरी श्रेणी मे आते है। एक बात और भी महत्वपूर्ण है की हम किसे श्रेष्ठ मानते है। और हम जिसे भी श्रेष्ठ मानते है उसकी छबि कही ना कही हमारे व्यक्तित्व मे रहती है। अगर हम अपने देश के लोगो का श्रेष्ठ का पैमाना जानना चाहे तो वह बड़ा जटिल है। हमने हर जगह की सबसे सरल बातो को अपने आप मे समाहित की हुई है। अगर ऊपरी दिखावा की बात की जाये तो हम पश्चिमी सभ्यता किए अनुकरणीय है परंतु यदि कर्म की बात की जाये तो हम अपने निक्रष्ट श्रेष्ठ लोगो के अनुकरणीय है। तो वास्तविक रूप से हम वो भ्रमित लोग है जो कही के नहीं है। आप से कुछ प्रश्न पुछना चाहूँगा। यह बताइये की किसी की पीड़ी मे किसी समय बहुत समृद्धि थी, तो क्या उसे हमेशा यह याद करके अपना मन बहलाना चाहिए या फिर उसे फिर से प्राप्त करने के लिए कर्म करना चाहिए। अगर वह सिर्फ पुरानी बातों को याद करता रहता है तो उसे आप क्या कहंगे, शायद अकर्मण्य या निकम्मा। तो फिर दिन आप रात क्यो कहते रहते हो की हमारी संस्कृति मे ऐसा था, हम समृद्ध थे। क्यो नहीं कहते की आज हम कैसे है और हमे क्या करना चाहिए। क्यो हम अपनी तुलना दूसरों से करे, क्यो न अपने इतिहास से ही अपनी तुलना करे। हंम उस औलाद की तरह है जिसने अपने जीवन मे कुछ नहीं किया और जो अपने पिता के कर्मो को याद कर मन बहलाता रहता है। याद रखिए आप आज जो भी है, जिस भी स्थिति मे है उसमे किसी पश्चिमी सभ्यता या आपके पड़ोसी का हाथ नहीं है। इसी संधर्भ मे भगवान कृष्ण ने गीता के अध्याय 6 के 5 वे श्लोक मे कहा है
उद्धरेदात्मनाऽत्मानं नात्मानमवसादयेत्‌ ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥
अरतार्थ अपने द्वारा अपना संसार-समुद्र से उद्धार करे और अपने को अधोगति में न डाले क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है॥5॥

जय हिन्द
अजय सिंह नागपुरे

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